17 मई: राष्ट्रीय लुप्तप्राय प्रजाति दिवस
क्या सिर्फ बाघ ही लुप्तप्राय है?

(वायरलेस न्यूज नेटवर्क)2006 से वर्ष के तीसरे शुक्रवार के दिन यह दिवस संकटग्रस्त और लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए सीखने, कार्रवाई करने के लिए मनाया जाता है। प्रजातियां और उनकी आबादी इकोसिस्टम के बिल्डिंग ब्लॉक हैं, जो अकेले और सामूहिक रूप से सभी के जीवन के लिए परिस्थितियों को सुरक्षित करते हैं। वे भोजन, दवा, मिट्टी का निर्माण, अपघटन, पानी को फिल्टर और प्रवाह करने, परागण, कीट नियंत्रण और जलवायु को रेगुलेट करते हैं। इनके बिना पृथ्वी पर मानव जीवन भी नहीं रह सकता।

सबसे खतरे में कीट पतंगे हैं जो कि परागन करके प्रकृति को आगे बढ़ते हैं। यूरोप अकेले में पिछले दशक में इनकी आबादी सत्तर फ़ीसदी कम हुई है। मानव जनित जैव विविधता, जलवायु संकट और हैबिटेट लॉस के कारण अब हर दस मिनट में एक प्रजाति हरदम के लिए विलुप्त हो रही है, मतलब एक दिन में 144, वर्ष भर में पचास हजार से ज्यादा। एक अनुमान के अनुसार 2030 तक लगभग दस लाख प्रजातियां हरदम के लिए विलुप्त हो जायेंगी। विलुप्त होने से पहले यह लुप्तप्राय श्रेणी में रखी जाती है। इन्ही के लिए यह दिवस है।

पिछले पचास वर्षों में सत्तर फ़ीसदी जंगली जानवर पृथ्वी पर कम हुए। पलटी खाया हुआ परिस्थिति तंत्र यह है कि अब जीवित जीवों में साठ फ़ीसदी पशु है जिसमें सूअर शामिल हैं, छत्तीस फीसदी मानव और चार प्रतिशत वन्य स्तनधारी है। पक्षियों में सत्तर प्रतिशत मुर्गियां और तीस प्रतिशत जंगली पक्षी हैं।

हमारे देश में जब भी लुप्तप्राय प्रजाति की बात होती है तो प्राथमिकता बाघ तक ही सीमित रहती हैं। इसे आईकॉनिक बनाने के चक्कर में हम अन्य लुप्तप्राय और संकटग्रस्त प्रजाति; जंगली कुत्ते, भेड़िए, भालू, तेंदुआ, पैंगोलिन सबको भूल गए हैं। कई पक्षी और पेड़ की प्रजातियां लुप्तप्राय है। इन्हें बचाने के लिए कोई ठोस योजना बनाने पर भी चर्चा नहीं होती, जिसकी जरूरत है।
नितिन सिंघवी
98261 26200