क्या जमाना था जब गुरुकुल के आश्रमों में बच्चे पढ़ते थे।माँ-बाप भी अपने बच्चों को आश्रम में डालकर फुर्सत पा जाते थे।न फीस का झंझट न डोनेशन का लफड़ा।आश्रमवासी बच्चे सब कुछ सीख कर युवा होकर वापस आते और सीधे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश पा जाते थे।रोजगार दफ्तर का भी चक्कर नहीं लगाना पड़ता था।
(कार्टून प्रदीप आर्य)
आज परिवर्तन ऐसा हुआ कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है।गुरुकुल आश्रम न होकर दुकान हो गई है।आप अपने बच्चों को अध्ययन करना चाहते हैं तो छांट-बीन कर अपनी हैसियत के मुताबिक स्कूल में दाखिला कराएं।दाखिले के वक़्त डोनेशन देना सबसे पुनीत धर्म है।दाता डोनेशन देकर मुक्ति पा जाता है।
बच्चे के युवा होते तक अनेक बार डोनेट कर पालक पुण्यफल अर्जित करते हैं।इसके बदले युवा डिग्रीधारी कहलाने लगता है।उसके शिक्षण में ट्यूशन का भी भारी योगदान होता है।वर्तमान में यह हालत है कि बिना ट्यूशन कोई बच्चा डिग्रीधारी नहीं बन पाता।
डिग्री पाने के बाद युवा को सिर्फ एक जगह दिखाई पड़ती है जहां उसकी डिग्री का मूल्यांकन हो सकता है और वह जगह है रोजगार दफ्तर।यहां से उसे लाइन लगाने की भी शिक्षा प्रारंभ हो जाती है।आगे चलकर उस ऑफिसों में नौकरी के लिए लाइनें लगानी पड़ती हैं।वे बहुत भाग्यवान होते हैं जिन्हें सरकारी नौकरी आराम से मिल जाती है वह भी बिना पहुंच और पैसे के।
अफ़सर बनने के लिए अतिरिक्त किस्म की पढ़ाई करनी होती है जिसे आंग्ल भाषा में कोचिंग कहते हैं।कोचिंग की भी अनेकानेक दुखाने(दुकानें)खुल चुकी हैं।यहां बरसों पढ़ने के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं होती कि नौकरी मिल ही जाएगी।प्रयास करते रहिए,भगवान पर भरोसा रखिये कि वे नौकरी दिला देंगे।
शिक्षा की डिग्री की एक उपयोगिता यह है कि उसे फ्रेम करा कर अपने घर पर टांग रखिये।यदि सीलन से प्रभावित नहीं हुई तो बाल-बच्चों को वह दिखाने के काम तो आएगी ही।समझदार पालक या यूं कहें कि भुक्तभोगी पालक अपने बच्चे को कानून की पढ़ाई करा देता है जिससे युवक बेरोजगार नहीं होता।काला कोट धारण कर कचहरी में मंडराने लगता है और रसीदें आदि छोटे-मोटे कानून संबंधी कार्य कर कुछ न कुछ कमाने लगता है।आगे चलकर बड़ी कमाई की उम्मीद भी हो जाती है लड़की वालों को फलतः शादी भी हो जाती है।
कुछ युवक पत्रकार बन जाते हैं जो बेरोजगारी का ही एक प्रकार है।पर इस बेरोजगारी में प्रेस मालिक से भत्ता मिल जाता है।कुछ होनहार पालक अपने बच्चे शुरू से राजनीति की शिक्षा दिलाते हैं।वे जानते हैं कि नौकरी करने वाले की बजाय नौकरी देने वाला बनने में समझदारी है।
गुरु-शिष्य की परंपरा हमारे देश की अति प्राचीन परंपरा है।द्रोणाचार्य के गुरुकुल से ही निकले थे कौरव-पांडव,विश्वामित्र के आश्रमवासी रहे हैं अयोध्या वासी राम,कृष्ण,सुदामा भी सांदीपनी के आश्रम से पढ़कर निकले थे।आजकल देहरादून सबसे बड़ा आश्रम है।
गुरु-शिष्य आमने-सामने बैठकर पढ़ते-पढ़ाते थे।आजकल गुरु-शिष्य के आमने-सामने मोबाइल,लेपटॉप या टैबलेट होता है और वायव्यी शिक्षा प्रणाली चल रही है।ऑनलाइन बच्चे पढ़ रहे हैं टीचर पढा रहे हैं।परीक्षाएं तक ऑनलाइन हो रही हैं।ऑनलाइन पढ़ाई और परीक्षा के ऑनलाइन परिणाम भी मिलेंगे।शाला और शाला भवन की जरूरत नहीं है।कमरे की जरूरत होती है ।शिष्य अपने घर के एक कमरे में बैठकर शिक्षा ग्रहण कर सकता है और शिष्य अपने घर के एक कमरे में बैठ कर पढ़ा सकता है।
आजकल दूरवर्ती शिक्षा हो गई है।शिक्षक शहर में, प्रदेश में,देश और विदेश में भी रहकर आराम से पढ़ा सकता है।अब शिक्षा की हालत पतली हुई या मोटी यह आपको खुद से समझनी पड़ेगी।हम तो कबीर दास जी की वाणी में सिर्फ इतना कह सकते हैं–
” लिखा-लिखी की है नहीं,
देखा-देखी बात।
दूलहा-दुलहिन मिल गए,
फीकी परी बरात।। “
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