वाबी सॉबी और आनंद वन
मानव का स्वभाव एक होता है, बस आदते अलग-अलग होती है।
मेरी जीवन यात्रा भी बड़ी अजीब रही है। सपने तो बचपन से बहुत बड़े थे, लेकिन आर्थिक तंगी थी। आज आर्थिक तंगी नही, तो फिर वही जीवन में अधूरापन या कमी क्यों?
समझ में नही आता है, जमींदोज होने के बाद भी शायद यह कमी पूरी नही होगी, और शायद यही कुछ न कुछ कमी ही जीवन है और यही जीवन की याथार्थकता।
और यह कमी की पूर्ति की चाह ने वरोरा, चंद्रपुर जिले मे बाबा आम्टे द्वारा स्थापित आनंद वन की धरती पर पहुंचा दिया। यह संयोग था या इतेफाक या अध्यात्म, मुझे नही मालूम बस एक चीज मालूम है कि जीवन का आधार महज आर्थिक समृद्धि ही नही अपितु मानवीय सेवा है।
वैसे भी मानव के विकास क्रम में पहले निर्भर, फिर आत्मनिर्भर, फिर सहनिर्भरता के सिद्धांत पर चलायमान है। लेकिन परस्पर निर्भरता के आधार पर जीवन की सम्पूर्णता आनंद वन के उद्देश्य की ओर इंगित करता है।
आनंद वन की यात्रा, ने एक बात का अहसास तो अवश्य करा दिया, कि अपनी कमजोरी ही अपनी ताकत बनती है। यही एक की कमी दूसरे के द्वारा पूरी कर दी जावे, तो दोनो के जीवन में सम्पूर्णता का क्या कहना ? यह चीज वह निवास कर रहे विकलांगता, जिसमें एक की विकलांगता, दूसरी किस्म की विकलांगता और एक दूसरे के साथ मिलकर यहा तक कई परिवारो को एक मुक्कमल जहाँ बनाते मैने वही देखा।
भारत वर्ष के साथ कुछ ही सिने या राजनीतिज्ञ बहुत कम ही होगे जिसने कदम वहॉ न पडे़ हो।
चाहे स्वच्छता या हरित या स्वास्थ्य हो या प्रशिक्षण या सशक्तिकरण या सामूहिकता हो या सामुदायिक भावना में चीजे मानव के सम्पूर्ण कल्याण के लिये आवश्यक तो है ही, साथ ही प्रकृति के गोद में शहर के बीचों-बीच फॉरेस्ट बाथिंग का मुक्कमल स्थान है।
मैंने आनंदवन से जापान की सिद्धांत वाबी सॉबी के स्वरूप का दर्शन किया जो कहता है –
1. कुछ भी सम्पूर्ण नही है।
2. कुछ भी समाप्त नही है।
3. कुछ भी सदा नही रहता है।
जापान में सबसे सुंदर और मंहगा प्याला या पात्र उसे माना जाता है, जिसमे कुछ खराबी या कमियां हो क्योंकि यही खराबी (कमियां) आनंद वन के परीप्रेक्ष्य में विकलांगता उसे अनूठा बनाती है।
एक नवसिखिया अपनी कला के प्रथम चरणो मे टेडी/मेडी बर्तन या पात्र या अन्य चीज बनाता है, लेकिन उसका प्रथम बनाया हुआ पात्र बहुत ही अहम होता है। उसे वह सब संवारकर रखता है, भले ही उसमे लाख कमियॉ या खराबी क्यों न हो ?
कुछ इसी पर की अवधारणा किंत्सुगी कला में देखने को मिलती है, जिसमें पात्र जिससे दरार या क्रेक को सोने की परत या लेप लगाकर उसे खुबसूरत और मंहगी बनाया जाता है।
और शायद ईश्वर ने इसी कला किंत्सुगी का साक्षात दर्शन विकलांगता के शक्ल में मुझे आनंद वन में दिखता है।
इसी विकलांग बालिका की चंद अल्फाजो ने नाइजीरिया के अमीर व समाज सेवी फेमी ओटेडोला जिनको पूरे अफ्रीका में अग्रणी स्थान है, कि सोच में सकारात्मक परिवर्तन लाकर उसके जीवन को कैसे रूपातंरित किया इस संबंध में बताई जा रही है।
नाइजीरिया बिजनेस मेन एवं समाज सेवी के जीवन में वे तमाम चीजे थी। जिसे व्यक्ति द्वारा खरीदा जा सकता है, लेकिन जीवन के पड़ाव में कई लम्हे ऐसे आते है, ये सब भौतिक चीजे कुछ काम के नही होते, कुछ ऐसा ही स्टीव जॉब्स के साथ हुआ था। लेकिन समझ मे आने मे बहुत देर हो चुकी होती है। कुछ ऐसा ही कहानी या मोड़ फेमी ओटेडोला के जीवन में भी आया, उन्होने अपने अजीज दोस्त से मन में उठ रहे तूफान एवं अशांति के संबंध मे चर्चा की, और बताया उनके पास तमाम चीजे है, रियल स्टेट, ऑयल गैस मे उनका अग्रणी स्थान है, वे आफ्रीका के रईसो मे वे शुमार है, लेकिन वे शांति को मिस कर रहे है। तो उनके दोस्त ने सलाह दी क्या वे विकलांग बच्चे को वे ट्रायसाइकिल दे सकते है ? तो फेेमी ने कहा कौन सी बड़ी बात है, चेक दे कर कहता है ट्रायसाइकिल खरीद लेना। दोस्त ने कहा नही, यह काम स्वयं तुम्हे ही करना होगा और तुम्हे वितरित भी करना है। दोस्त के कहने पर वे गये और ट्रायसाइकिल वितरण की, तो ट्रायसाइकिल प्राप्त करने वाली एक बच्ची ने फेमी के पैर पकड़ लिये, फेमी ने पूछा कुछ और चाहिये क्या ? विकलांग लड़की ने कहा नही, आपने बहुत कुछ दे दिया, लेकिन मैं आपको और करीब से देखना चाहती हूॅ ताकि जब भी एक बार पुनः स्वर्ग मे मिले तो आपका वहॉ चेहरा पहचान सकू और वहॉ भी आपको धन्यवाद कह सकू।
कुल मिलाकर हमारी खुशी बाहरी वस्तु में नही अपितु अंदर है, बस खोजना आना चाहिये, जो विश्व की किसी भी भौतिक चीजो के बलबूते पर संभव नही है।
यदि ऐसा संभव होता तो विश्व के नामी गिरामी रईसो को शांति, खुशी की तलाश के लिये भटकना नही पड़ता।
और अंत मे –
पुरे की “ख्वाहिश“ में ये “इंसान“
बहुत कुछ खोता है..
भूल जाता है कि “आधा चॉद“
भी “खूबसूरत“ होता है..।
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