*उड़न-छू*
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*नकल के लिए भी अकल*
————————–केशव शुक्ला●

हमारे जमाने के गुरुजी जरा अलग किस्म के होते थे।वे कसकर पढ़ाते थे तो कसकर कूटते भी थे।वे किसी से डरते नहीं थे क्योंकि कुटाई का अधिकार उन्हें पिता ही सौंप जाते थे।वे कसकर पढ़ाने की फीस साल भर कसकर पीटकर वसूला करते थे।एक कक्षा पार करने के लिए तीन बार बैतरणी पार करनी पड़ती थी जिसका नाम तिमाही, छमाही और वार्षिक बैतरणी हुआ करती थी।
ले-देकर चार कक्षाओं की बैतरणियां हम पार कर चुके थे।पांचवीं पार करनी थी।उस समय हमें यह कथा मालूम हो गयी थी कि बैतरणी पार करने के लिए गाय की पूंछ पकड़नी पड़ती है।परीक्षा हॉल में सामने बैठा हुआ लड़का हमें गाय ही दिखा।हमने उसकी पूंछ पकड़कर नकल करना शुरू ही किया था कि पीछे से गुरुजी ने कान पकड़कर हमें उठा दिया और बोले-बेटा नकल मारने में भी अकल लगती है।
मन हुआ कि उन्हें जवाब दें कि गुरुजी अगर अकल हमारे पास होती तो नकल मारने की जरूरत ही क्यों पड़ती ,पढ़कर न पास हो जाते। पर मार की डर से यह नहीं कह सके।आज हम सोचते हैं,हमारे गुरुजी कितना सही कहा करते थे।वर्तमान समय में बहुत अकल लगाकर नकल मारनी पड़ती है।इस सत्य का ज्ञान हमें उपअभियंता पद की भरती के लिए होने वाली परीक्षा से तब हुआ जब हाईटेक नकल करती बाला पकड़ी गयी।
उस लड़की ने ऐसी अकल लगाई थी कि उसका पकड़ा जाना मुश्किल था।अपने अंतः वस्त्र में कैमरा छिपकर रखी थी और कानों में माइक्रो स्पीकर लगा रखा था।कैमरे से बाहर बैठी बाला क्वेश्चन पेपर देखकर माइक्रो स्पीकर में आंसर की इमला बोल रही थी।उधर कलम आंसर सीट पर फर-फर चल रही थी।अब आप ही बताइए… नकल के लिए भी अकल लगती है या नहीं ?अब इलेक्ट्रॉनिक नकल मारने की जाँच शुरू कर दी गयी है।अब उनकी जाँच कौन करेगा जो हाईटेक के नकल से बड़ी-बड़ी बैतरणियां पार कर चुके होंगे…..?