उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का समय जब भारत में स्वदेश प्रेम की भावना और चेतना का प्रसार तेजी से फैल रहा था। राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि में भाषा प्रेम से प्रेरित नवजागरण का साहित्य पल्लवित पुष्पित हो रहा था, ऐसे समय में हिन्दी भाषा और हिन्दी पत्रकारिता का बीजारोपण हुआ। सन् 1900 से लेकर 1919 ई.का काल भारतीय इतिहास में दमन और सुधार का दौर माना जाता है। विदेशी सत्ता के खिलाफ समूचे भारत में आंदोलन की आग तेज हो चुकी थी किन्तु इस आंदोलन को जन मन की भाषा की जरूरत थी। इस भाषा का नेतृत्व किया हिंदी ने। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने काशी से हिन्दी के लिए जो आव्हान किया और उसका प्रभाव देश के सभी स्थानों में हुआ। हिन्दी के सैंकड़ों पत्रों का अवतरण हुआ। साहित्यिक पत्रकारिता को उसकी अपनी भाषा हिन्दी मिल गई। स्वतंत्रता आंदोलन को महात्मा गांधी, तिलक और प. माखनलाल चतुर्वेदी जैसे महान नायकों का नेतृत्व मिल गया वहीं हिन्दी के अनन्य सेवक के रुप में पं.माधवराव सप्रे का स्मरण कभी भुलाया नहीं जा सकता है। छत्तीसगढ़ मित्र, हिन्दी केसरी और कर्मवीर जैसे पत्रों के प्रणेता सप्रे जी का हिन्दी भाषा के विकास और भाषाई पत्रकारिता को संस्कार देने में अतुलनीय योगदान है। तभी प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने सप्रे जी के महत्वपूर्ण योगदान पर लिखा, कि माधवराव सप्रे ने हिन्दी में पत्रकारिता और लेखन का काम करते हुए हिन्दी नवजागरण को विशेष गति और शक्ति दी। समाज और राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं को समझने और अपने हिन्दी पत्रों के जरिए जागरूकता लाने का कार्य सप्रे जी ने अद्भुत राष्ट्रसेवा का परिचय देते हुए किया।
पं.बालकृष्ण भट्ट, केशवराम भट्ट, संपादकाचार्य रुद्रदत्त शर्मा, प्रतापनारायण मिश्र, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबूराव विष्णु पराड़कर, मुंशी प्रेमचंद, पं.माखनलाल चतुर्वेदी, लक्ष्मीधर वाजपेयी, रामचन्द्र वर्मा, पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र एवं सेठ गोविंददास जैसे अग्रणी मनीषियों की परंपरा को प्रतिष्ठापित करते हुए माधवराव सप्रे जी ने हिन्दी की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। पं. विद्यानिवास मिश्र जी ने सप्रे जी के रचना संसार को व्यक्त किया कि हिन्दी का उन्नयन उनके लिए स्वदेशी की मुक्ति का मार्ग था। अपने हिन्दी लेखों के कारण ही उन्हें जेल भेजा गया था। मिश्र जी के अनुसार, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी सरकारी नौकरी के दबाव में स्वदेश प्रेम के लिए मुखर नहीं रहे जबकि सप्रे जी ने सामने परोसी हुई नौकरियों, धनोपार्जन के अवसर ठुकरा दिए और जीवन भर आर्थिक तंगी से काटते हुए वे स्वदेश सेवा में लगे रहे। उल्लेखनीय है कि सप्रे जी ने 1924 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन की अध्यक्षता भी की थी।
पं.माधवराव सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया गांव में 19 जून 1871 को हुआ था। सप्रे जी के पूर्वज महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में बस गए थे। मराठी भाषी होते हुए भी सप्रे जी का अनुराग हिन्दी भाषा से था। आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने सरकारी नौकरी की तरफ नहीं झुके। हिन्दी को अपनाया और समाज और राष्ट्र सेवा में लीन हो गए। ऐसा अनूठा उदाहरण नहीं मिलेगा कि मात्र पचपन बरस के अल्प जीवन में आर्थिक तंगी से जुझते हुए स्वाधीनता की लड़ाई, समाज सेवा, साहित्य सृजन और हिन्दी पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान की। अनेक राष्ट्रीय आन्दोलनों का हिस्सा बने। यह बड़ी बात थी कि उस समय के मध्यप्रदेश के छोटे से स्थान पेंड्रारोड (बिलासपुर) से जनवरी 1900 ई. में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नाम की पत्रिका शुरू की। विचारप्रधान इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाचार, कविताओं, कहानियों, व्यंग्य लेखन , निबंध और समालोचना जैसे विषयों को पाठकों तक पहुंचाया। हिन्दी समालोचना की बुनियाद सप्रे जी ने ही छत्तीसगढ़ मित्र से डाली। भीषण आर्थिक तंगी से छत्तीसगढ़ मित्र हालांकि दिसंबर 1902 में बंद हो गया। लेकिन मित्र ने हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को जो संस्कार दिए वे संस्कार आज भी राज्य में बदल चुके छत्तीसगढ़ के हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में दिखाई देते हैं। छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता की सप्रे जी से मिली समृद्ध परंपरा का निर्वहन कर रहा है।
मित्र के बंद होने से सप्रे जी हताश नहीं हुए। 1905 में उन्होंने नागपुर आकर हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली स्थापित की और इस मंडली के सहयोग से मई 1906 में हिन्दी ग्रंथमाला का प्रकाशन प्रारंभ किया। इस प्रकाशन को उन्होंने सामाजिक जागृति के लिए उसी तरह से लिया जिस तरह मराठी में निबंधमाला और ग्रंथमाला का प्रकाशन नागपुर से हो रहा था। यह रोचक तथ्य है कि सप्रे जी ने हिन्दी ग्रंथमाला के अन्तर्गत अपनी एक पुस्तिका स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट नाम से निकाली। सप्रे जी इस समय तक तिलक की विचारधारा से काफी प्रभावित हो चुके थे। उन्होंने यह समझ लिया था कि जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित नहीं हो जाएगा तब तक अन्य विषयों में सुधार करने का यत्न सफल नहीं होगा। सप्रे जी ने तिलक के विचारों से प्रेरित होकर उपनिवेशवाद का जोरदार विरोध किया और राष्ट्रीयतावादी विचारों को हिन्दी क्षेत्रों में लोगों तक पहुंचाने का काम किया। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने मराठी केसरी की तरह हिन्दी केसरी का उपहार देश को दिया। हिन्दी केसरी का पहला अंक 13 अप्रेल 1907 को निकला। हिन्दी केसरी ने स्वदेशी के प्रचार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार सहित क्रांतिकारियों के विचारों का प्रचार प्रसार किया। अन्ततः ब्रिटिश सरकार के कोप का शिकार सप्रे जी हुए और उन्हें 22 अगस्त 1908 को गिरफ्तार कर लिया गया। अपनी रिहाई के कुछ दिनों बाद सप्रे जी ने राजनीतिक जीवन को कुछ नए ढंग से बदल लिया और नवजागरण की प्रक्रिया में दासबोध का हिन्दी में अनुवाद कर 1912 में प्रकाशित किया। इस अनुवाद के क्रम में उन्होंने तिलक के गीता रहस्य का हिन्दी अनुवाद किया जो 1916 में प्रकाशित हुआ। फिर महाभारत के उपसंहार का महाभारत मीमांसा नाम से हिन्दी अनुवाद किया यह अनुवाद 1920 में छपा। इस प्रकार सप्रे जी ने मराठी के तीन बड़े ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद कर हिन्दी के पाठकों की बड़ी सेवा की। सप्रे जी ने कहानी लेखन में एक टोकरी भर मिट्टी जैसी प्रतिनिधि कहानी और समालोचना के नए प्रतिमानों को स्थापित कर साहित्य जगत को नई पहचान दी।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिन्दी ग्रंथमाला’ और ‘हिन्दी केसरी’ के सम्पादक, ‘हिन्दी चित्रमय जगत’ और ‘श्री शारदा’ के प्रवर्तक, ‘कर्मवीर’ के जनक, मराठी ‘दासबोध,’ ‘गीता रहस्य’, ‘महाभारत मीमांसा’, आदि महत्वपूर्ण ग्रंथों के महान हिन्दी अनुवादक, हिन्दी के प्रमुख आधार स्तंभ, हिन्दी की पहली मौलिक कहानी के शिल्पी और वरेण्य समालोचक, अनेक राष्ट्रीय आंदोलन के सेनानी पं.माधवराव सप्रे जी के जीवन और व्यक्तित्व का अनुशीलन वस्तुतः अभी शेष है।
पं.माखनलाल चतुर्वेदी ने 11 सितंबर 1926 को ‘कर्मवीर’ में लिखा – पं. माधवराव सप्रे का एक महत्वपूर्ण अवदान ऐसी प्रतिभाओं की परख और उनका प्रोन्नयन है जिन्हें वे राष्ट्रीय कार्य के लिए उपयुक्त पाते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता, हिन्दी की सेवा के लिए सुधि साहित्यकार और जनजागरण के लिए प्रखर पत्रकार तैयार किए।
हिन्दी की बुनियाद मजबूत और वैभवशाली है। पं. माधवराव सप्रे जी ने हिन्दी की महान सेवा करके राष्ट्रीय आन्दोलन को सशक्त करने के साथ साथ हिन्दी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता को नव आयाम दिए। सही समय है हम नवजागरण के दूरदृष्टा और तपस्वी पं. माधवराव सप्रे जी के हिन्दी की अनन्य सेवा का स्मरण इस हिन्दी दिवस पर अवश्य करें।

( लेखक डा. शाहिद अली , देश के जाने माने मीडिया शिक्षाविद् वरिष्ठ पत्रकार हैं और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
तिथि 13/09/2020
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