*चक्रधर समारोह बनाम सांस्कृतिक एय्याशी*

(*दिनेश मिश्र*)

रायगढ़ । (वायरलेस न्यूज) सरकार के अधीन कला एवं संस्कृति विभाग का गठन जरूर किसी शातिर कूटनीतिज्ञ की दिमागी उपज होगी। कला के किसी भी रूप का कार्य जनरुचि व लोक-संस्कारों का परिष्कार करना होता है जबकि राजनीतिक सत्ता का काम कूटनीति, अवसरवादिता और छल-प्रपंच के द्वारा एन-केन प्रकारेण अपने पक्ष में जनसमर्थन जुटाना होता है। अतः सत्ता संस्थान जनरुचि का परिष्कार करने की बजाय उसका अनुकूलन करना चाहता है। लिहाजा यह सहज ही समझा जा सकता है कि किसी सरकार के अधीन कार्यरत कला व संस्कृति विभाग की भूमिका सरकार के चीयर लीडर्स से अधिक क्या हो सकती है ? छत्तीसगढ़ का संस्कृति विभाग तो विभिन्न कला समारोहों के माध्यम से कलाकारों की राजनीतिक खेमेबंदी का मंच बनकर रह गया है और रायगढ़ का चक्रधर समारोह भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है।

*गौरवशाली इतिहास व कलंकित वर्तमान* –

रायगढ़ स्टेट के राजा भूपदेव सिंह के घर गणेश चतुर्थी के पावन दिन पुत्र रत्न (चक्रधर सिंह) का जन्म हुआ था। इस खुशी में लगातार एक माह तक उत्सव मनाया गया। कालांतर में कला-रसिक राजा चक्रधर सिंह ने इस अवसर पर संगीत, कला एवं खेलकूद के आयोजन की परम्परा रखी। यह गणेशोत्सव के रूप में विख्यात हुआ। राजशाही के पतन के बाद संरक्षण के अभाव में इस परंपरा ने दम तोड़ दिया। 1984 के आस-पास तत्कालीन सांसद केयूर भूषण व निर्मला देशपांडे के समर्थन से कलागुरु वेदमणी सिंह व साथियों ने इस परंपरा को पुनर्जीवित किया और इसका नामकरण चक्रधर समारोह किया गया। आगे जाकर भारत भवन के कर्ता-धर्ता अशोक बाजपेयी ने समारोह के बहाने नेपथ्य से छत्तीसगढ़ में शुक्ल बधुओं के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़कर तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खेमें को स्थापित करने का बीजारोपण किया। मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग व जिला प्रशासन के जुड़ने से समारोह भव्यता के नए सोपान तय करने लगा। बस यहीं से समारोह में आधिकारिक कब्जे की होड़ मच गयी। हर बढ़ते साल के साथ इस समारोह का शास्त्रीय व कला पक्ष कमजोर होता चला गया और उसके स्थान पर सस्ते मनोरंजन व ग्लैमर का तड़का मुख्य स्थान पाने लगा। कला साधक चक्रधर सिंह की ख्याति के अनुरूप संगीत व कला के सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति की जगह हो-हंगामे से परिपूर्ण अशालीन व ग्लैमरस कोलाहल समारोह पर हावी होता चला गया। कलाकारों का चयन कला प्रतिभा के आधार पर नहीं वरन शासन तक पहुंच व तिकड़म के जरिये होने लगा। इस रवैये ने एक गौरवशाली परम्परा को पतन के रास्ते में धकेल दिया और रायगढ़ की कला परंपरा कलंकित होकर रह गई ।

*विवादों से गहरा नाता*-

चक्रधर समारोह और विवादों का चोली-दामन का रिश्ता रहा है। आयोजन समिति व कलाकार चयन समिति में स्थान पाने से लेकर समारोह में सहयोग करने के बहाने चापलूस व स्तरहीन लोगों में प्रशासनिक अधिकारियों की नजदीकी हासिल करने की होड़ मची रहती है। इसने समय-समय पर अनेक विवादों का सृजन किया है। कांग्रेस के शासनकाल में मुशायरे का आयोजन होता रहा लेकिन भाजपा का शासन आते ही इसे बंद कर दिया गया। इससे बड़ा हो – हल्ला व हंगामाखेज प्रदर्शन हुआ। कभी मंच पर मुख्य प्रायोजक जिंदल समूह के बैनर लगने पर विवाद, तो कभी मंच के सामने पसरकर बैठे धनकुबेरों द्वारा मुजरे की तर्ज़ पर कलाकारों को नोट न्यौछावर करने की घटना सुर्खियों में रही। कभी भोजन व्यवस्था में लगे दो समूहों में मारपीट की घटना थाने तक पहुंची तो कभी जातीय अस्मिता के नाम पर समानान्तर समारोह का आयोजन हो गया। अनेकों बार तो वर्षों से खूंटा गाड़कर बैठा उदघोषक विवादों के केंद्र में रहा। एक बार तो उद्घोषक द्वारा जबरिया जिला-प्रशासन की स्तुति करवाने के प्रयास से गायिका ऋचा शर्मा इस कदर उखड़ गयीं कि उन्होंने बाकायदा मंच से इसके लिये गहरी नाराजगी व्यक्त की थी।
टेंट , माइक , भोजन का ठेका, कलाकारों का चयन व पारिश्रमिक, होटल अधिग्रहण, कार्यक्रम का सीधा प्रसारण, वी आई पी दीर्घा व पत्रकार गैलरी का पास, स्थानीय कलाकारों की भागीदारी आदि भी अनेक अप्रिय विवादों का विषय रहे हैं। पैसों की अफरा-तफरी ने भी समारोह की प्रतिष्ठा को कई बार दागदार किया है। एक बार तो तत्कालीन एस डी एम की अनुशंसा पर एक बेहद आपत्तिजनक व अश्लील नृत्य प्रस्तुति से समारोह की खासी किरकिरी हो चुकी है।

*राज परिवार का अनावश्यक दखल*-

गौरतलब है कि यह समारोह किसी राजा की स्मृति में नहीं वरन एक कला-साधक चक्रधर सिंह को कलाकारों की विनम्र श्रद्धाजंलि के रूप में आयोजित होता है लेकिन रायगढ़ का राजपरिवार इसमें अपना पुश्तैनी अधिकार मानकर प्रायः हर बार कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है जबकि इस समारोह को पुनर्जीवित करने में राजघराने के मौजूदा सदस्यों का अंशमात्र भी योगदान नही रहा है । वास्तव में शहर के रसूखदारों ने अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से राजपरिवार से समर्थन और विरोध करवाने का खेल खेला है। इन गिरहकटो के हाथों की कठपुतली बनकर राजघराने के सदस्य पेंडुलम की भांति कभी इस ओर तो कभी उस ओर झूलते रहे हैं । प्रायः उपेक्षा व मंच पर प्रमुख स्थान ना पाने का रोना ही शिकायत का आधार रहता है। एक बार तो महल परिसर में गणेश स्थापना को लेकर अंधाधुंध चंदा एकत्रीकरण से भी जिला प्रशासन पर उंगली उठ चुकी है। इस बार तो राजपरिवार से ही एक भाजपाई राज्यसभा सदस्य हो गए हैं । देखना होगा कि इस बार उन लोगों का क्या रंग सामने आता है । तटस्थ प्रेक्षकों का मत है कि इनके विरोध अथवा बहिष्कार के खेल से आम जन व कला प्रेमी ऊब चुके हैं ।

*हलाकान जिला प्रशासन*

लगातार दस दिनों तक चलने वाले इस समारोह की तैयारियों में जिला प्रशासन का अमला लगभग एक-सवा महीने तक व्यस्त हो जाता है । अतः इस बीच प्रशासनिक कार्य पूरी तरह ठप्प हो जाते हैं और आम-जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है । समारोह हेतु जन-सहयोग के नाम पर धन संग्रह व विभिन्न तरह के सहयोग लेने के कारण बाद में प्रशासन को इन तबकों की अनुचित मांगों का भी सामना करना पड़ता है । इस प्रकार यह समारोह जिला-प्रशासन के लिए एक सिर-दर्द साबित होता है ।

*तीन दिवसीय हो समारोह*

तानसेन संगीत समारोह, खजुराहो नृत्य समारोह व इंडिया-टुडे द्वारा आयोजित कला-समारोह भी तीन दिवसीय रहते हैं अतः चक्रधर समारोह भी तीन दिवसीय या अधिकतम पांच दिवसीय होना चाहिए । वस्तुतः दस दिनों के आयोजन में इस बड़े मंच की गरिमा के अनुरूप स्तरीय कार्यक्रम नही मिल पाते हैं अतः मज़बूरी में काम चलाऊ कार्यक्रमों का सहारा लिया जाता है इससे व्यर्थ में ही समय, ऊर्जा व पैसों की बर्बादी ही होती है । अतः सच्चे कला प्रेमियों का यह सुझाव है कि चक्रधर समारोह को स्तरीय व गरिमा पूर्ण बनाये रखने के लिए इसे अधिकता पांच दिवसीय रखना ही श्रेयस्कर होगा ।

*दम नही है कांग्रेस के विरोध में*

आगामी सात सितंबर से रायगढ़ में चक्रधर समारोह के आयोजन की सुगबुगाहट के साथ ही हमेशा की तरह राजनैतिक धींगा-मस्ती शुरू हो चुकी है । कांग्रेस खिलाड़ियों को आगे करके रामलीला मैदान बचाने के नाम पर विरोध को हवा दे रही है । सिद्धांततः यह बात सही है कि किसी भी आयोजन के नाम पर खेल मैदानों को खराब करने की अनुमति नही दी जानी चाहिए किंतु कांग्रेस के कार्यकाल में भी समारोह इसी मैदान पर होता रहा है इसलिए कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन में मैदान से लगाव कम और राजनैतिक स्वार्थ की मंशा अधिक दिखलाई पड़ती है ।

*प्रशासन की जकड़ व कला के ठेकेदारों से मुक्त करना होगा समारोह को*

चक्रधर समारोह कला के ठेकेदारों, आत्मकेंद्रित समिति सदस्यों , राजनीति के रंगे सियारों, किसी चारण भांड किस्म के संचालक अथवा प्रशासन के दंम्भी अधिकारियों की बपौती नही है वरन यह इस अंचल की कला प्रेमी जनता का अपना कार्यक्रम है । अतः इसे अशालीन, भ्रष्ट व गिरहकटो के चंगुल से मुक्त करना ही होगा । आवश्यक है कि राज्य के प्रतिष्ठित कला गुरुओं, कला साधकों, अनुभवी आयोजन कर्ताओं, आल इंडिया रेडियो के सिद्धहस्त उद्घोषकों व स्थानीय कला आचार्यो की एक उच्चस्तरीय समिति बनाकर उसे इस प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन का कार्यभार सौंपा जाए ।
बहरहाल आज की स्थिति में तो ऐसा लगता है कि चक्रधर समारोह का कला संगीत व संस्कृति से नाता लगभग टूट सा चुका है और यह अनावश्यक रूप से घुसपैठ करने वाले षड्यंत्रकारी तत्वों की सांस्कृतिक अय्याशी का मठ बनकर रह गया है । यह स्वरूप सच्चे संगीत, कला व संस्कृति कर्मियों के लिए कितना मर्माहत कर देने वाला है इसकी कल्पना भी नही की जा सकती । रायगढ़ विधायक व प्रदेश के वित्त मंत्री ओ पी चौधरी की यह जिम्मेदारी है कि वे चक्रधर समारोह की बहु- प्रचारित आभा मंडल से बाहर निकलें तथा उपरोक्त तथ्यों का निष्पक्ष विवेचन करके इस गौरवशाली समारोह की गरिमा को पुनर्स्थापित करें