जिंदगी की अंतिम मंजिल ?

जिंदगी से बड़ा सजा ही नहीं,
और क्या जुल्म है पता ही नहीं ?

लोग दुनिया मे अपने आप को महत्वपूर्ण बताने के लिये आमतौर पर यह कहते है कि, पिछले कई महीनों से मैं बहुत व्यवस्त हूॅ।
वस्तुतः मैं भी उसमे शामिल हूॅ, जो आमतौर पर ऐसा करते/कहते है।

लेकिन हकीकत यह है, कि हम ऐसा कह कर, स्वयं अपने आपको गुमराह करते रहते है।

हम आमतौर पर व्यस्त नहीं होते, बल्कि हमारा जीवन अस्त-व्यस्त होता है। लेकिन मानवीय प्रवृति ऐसा ही है। काम सफल होने पर लोगो द्वारा कहा जाता है, यह काम मैने किया है। असफल होने पर कहते है, उसने किया तथा अधिक सफलता की स्थिति में हमने किया है, कहते है।
अपने आप में गलती को स्वीकार करना स्वतः ही अच्छे चीज का घोतक हो सकता है।

वैसे भी देखा जाये, तो लोग अपने आप को त्यागी कहते है और बड़े गर्व के साथ कहते है, कि यह चीज हमने त्याग दिया या छोड़ दिया। सामान्य शब्दों में कहे तो हम जिम जाते है, कसरत करते है, डायटिंग करते है, कार्बोहाईड्रेट चीजों को कम लेते है। प्रोटिन वाले चीजों अधिक लेते है या सामान्य शब्दों में ये जो चीज स्वास्थ्य के लिये अच्छा है, वे चीज लेते है लेकिन वस्तुतः चीजों को त्यागने में वहीे अपितु जीवन में संतुलन के ऊपर ही जीवन आलंबित होता है। जीवने के आधारभूत आवष्यकतायें पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य एवं धार्मिक से जुड़ी हुई होती है, इसमें से आर्थिक आवष्यकता को छोड़ बाकी सभी चीजों की संरचना, विकास, संबंध कॉच की गेंद की तरह है। आर्थिक आवष्यकता रबर की गेंद की तरह है।

हम जीवन के संचालन में जोकर की भूमिका में होते है, जो जीवन में इन 5 गेंदो का जगर्लिंग करते रहते है। इनमें से आर्थिक आवष्यकता जो रबर का बना होता है, को छोड़ बाकी शेष गेंद, जो कॉच के बने है, के जमीन पर गिरने की स्थिति में टूटने का डर विद्यमान होता है या न टूटने की स्थिति में भी इसमे दरार या क्रैक हो सकता है। अर्थात मूल स्थिति मे यथावत नही मिलेगी इसलिये जीवन के इन 4 आवष्यकताओ को बड़े संभाल के संचालित करना पड़ता है।
आमतौर पर जिंदगी बोझ नही होती, लेकिन हॉ यह संघर्षमय हो सकती है। इसके बावजूद जिंदगी कब बोझ हो जाती है, जब रोटी, कपड़ा और मकान के लिये दर-दर ठोकर खाना पड़ता है। जिंदगी कब बोझ हो जाती है, जब बच्चे पढ़ना चाहते है, लेकिन बाप पढ़ा नही पाता। जिंदगी कब बोझ हो जाती है, जब सपने दम तोड देते है। जिंदगी कब बोझ हो जाती है, जब अपने अच्छे काम से दूसरे को कष्ट होता है। जिंदगी कब बोझ हो जाती है, जब जन्म देने वाली मॉ जिंदगी के अंतिम पड़ाव मे वृद्धाश्राम को या फिर अनाथालय मे शेष जिंदगी बिताती है और बच्चे विदेषो मे अपने परिवार के साथ विलासतापूर्वक जीवन व्यतीत करते है। इस व्यस्तता एवं मषीनी युग में इंसानियत व मानवीय गुण गुम सी गयी है।

जीवन का संचालन निम्न सी (C) – कम्पलेन (षिकायत), काम्पीटिषन (प्रतियोगीता), कम्पेयर (तुलना), कनफ्लिट (विवाद) के बीच अपने आप को चलते फिरते जेल मे पाता हूॅ। पता नही कब इन चीजो से जिंदगी खुली हवा मे सॉस लेगी या फिर ऐसा ही जमींदोज हो जाऊगा, प्रष्न एक ही है, उत्तर अनंत है, और उसमे से एक कटु एवं अकाट्य मंजिल यह तो नही ?

जिंदगी, मौत तो तेरी मंजिल है
और दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।