तलाश इक्कीसवीं सदी की
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(कार्टून-प्रदीप आर्य के द्वारा)
सन् उन्नीस निन्यांबे दिसम्बर माह इक्कतीस की मध्यरात्रि जिस नई सदी का जन्म हुआ था वह आज कहीं खो गई है।कितना धूम-धाम मचा था मिलेनियम को पाकर पर सब व्यर्थ हो गया।अब बीस वर्ष की होने जा रही है इक्कीसवीं सदी।
एक जमाना था जब फोटो खिंचवाने जाते थे तो फोटोग्राफर काले कपड़े में अपना सिर घुसा लेता था।वहां से एक चौकोर से फ्रेम में हमारा चेहरा उतारकर ले जाता था, एक बंद घुप अंधेरे कमरे में और वहां से हमारा सुंदर फोटो नहला-धुलाकर ले आता था।सिर घुसाने वाले कैमरे अब नहीं रहे,उनकी जगह छोटा सा कैमरा रह गया जिससे रंगीन तस्वीरें निकला करती हैं।
सन् उन्नीस सौ बासठ में चीन-भारत का युद्ध हुआ तो सारी ख़बर रेडियो पर सुनने को मिला करती थी।रेडियो के ऊपर एक कुत्ता चोंगे के सामने बैठा रहता था।रेडियो वाले कहते थे यह हिज मास्टर वायस का रेडियो है।इसमें बिनाका गीत माला भी हम सुन लेते थे।नेहरू के भाषण सुने जा सकते थे,बीबीसी लंदन के समाचार सुनने को मिला करता था।अब न वो कुत्ता रहा और न चोंगा न रेडियो।बच्चा मुंह में उंगली डाले बैठा हो तो मर्फी रेडियो कहलाता था और यदि वह बैरन हो तो जरूर बुश का रेडियो होता था।
बड़े घरों में टेलीफोन लगा था जिसमें एक छोटी सी डंडी लगी थी।उस डंडी को घुमाने पर आवाज़ आती थी।डंडी घुमाव ,कसरत करो।इस डिब्बे पर कुछ देर बाद नाते-रिश्तेदारों से बात हो जाती थी यह पता ही नहीं चलता था कि नाते-रिश्तेदार सच बोल रहा है या झूठ। वह कहां से बोल रहा है पूछने पर यदि वह अमेरिका कह दे तो उसे मानने की हमारी मजबूरी थी।फिर बटन वाले फोन आ गए।ये भी गए तो पीठ पर लटका कर चलने वाले फोन आ गए।इसका भी जीवन अधिक न था।हाथ में मोबाइल आ गया।अब एक दूसरे को देखकर भी बात कर सकते हैं वीडियो कॉल से।पता चल जाता है साला झूठ बोल रहा है।
टीवी आ गए।अब टॉकीजों में फिल्म देखने जाने,टिकट कटाने की ज़हमत मोल नहीं लेनी पड़ती।घर बैठे सिनेमा देख लो।सारा हिसाब- किताब रखने डायरी और नोटबुक की जरूरत पड़ती थी।हमारे सहित अनेक लोग दीपावली की रात लक्ष्मी जी के साथ डायरी और पेन की भी पूजा करते थे । इस पर बाकायदे स्वास्तिक का निशान बनाकर सबसे पहले शुभ-लाभ लिखते थे।क्या करें अपना जन्म ही शुभ लाभ के लिए हुए है।माता-पिता को लगा था कि दहेज तगड़ा मिलेगा,बेटा अफसर बनकर कमाई करेगा पर सब फुस्स। वह डायरी और पार्कर की पेन भी हमारी सदी के साथ खो गई।कंप्यूटर में सारी चीजें नोट की जाने लगी हैं।
दुनिया छोटी हो गई है।कंप्यूटर के नेट पर गूगल,सर्च करो तो सारी दुनिया मिल जाती है।जिसे चाहो सेव कर लो जिसे चाहे ब्लाक कर लात लगा दो।छोटा सा माउस बड़े-बड़े काम कर जाता है हालांकि हम हमेशा पिंजरे में फंसाकर चूहे बाहर छोड़ आते रहे हैं।सिर्फ गणेशोत्सव के दरम्यान ही मूषक महाराज की जयघोष किया करते थे।आदमी का दिमाग भी गुम हो गया है।खोजने पर वह एक दिन सीपीयू के भीतर मिला।अब कंप्यूटर भी धीरे-धीरे तिरोहित होता जा रहा है,एंड्रॉयड के सामने। इस हैंडसेट पर सारा काम कर लो।गाने सुन लो,पिक्चर देख लो,फोटो खींच लो।फोटो एलबम में सजा लो।सीरियल्स देख लो,रेडियो की तरह समाचार सुन लो।सारे घटनाक्रम को अपनी आंखों से देख लो।किसी का बेडरूम झांक लो तो किसी का बाथरूम।
सारा संसार इस छोटे से हैंडसेट में सिमट आया है।अब बैंक जाने की जरूरत नहीं है ऑनलाइन लेन-देन कर लीजिए।जेबकटी भी अब ऑनलाइन हो जाती है।जेबकतरे भी इस व्यवस्था में इलेक्ट्रॉनिक हो गए हैं।मार्केट में बिना पैसे के खरीददारी कर लो,रेल में सफ़र कर लो।टिकट मोबाइल की खिड़की पर मिल जाएगी।यानी वह सब जो कभी कल्पनाओं में नहीं था,सुलभ है।सुप्रभात से लेकर दोपहर ,शाम,शुभरात्रि तक का लेन-देन बिस्तर पर ही हो जाता है।कोई समान दुनिया के किसी भी देश से मंगाना है ऑनलाइन आर्डर कर दीजिए,वह घर पर आ जाएगा।राशन -पानी, घी-तेल, मिर्च-मसाले सब मिल जाएगा घर बैठे।बीबी तक मिल सकती है।इतना ही नहीं मित्रों!हमारा तो सारा परिवार इस सदी के चक्कर में छिन गया है मोबाइल जादू का पिटारा है। खुल जा सिमसिम कहने पर खुलता है,बंद हो जा कहने पर बंद हो जाता है।
इतना कुछ होने के बावजूद हमारी इक्कीसवीं सदी का कुछ पता नहीं है।कहां गुम हो गई है। अब तो वह बीस बरस की बाला हो गई है।सभी जगह सर्च मार लिया पर उस लापता का पता नहीं चला।
यकायक हमने अपनी मुट्ठी खोली तो क्या देखते हैं कि वह बीस बरस की बाला हमारी ही मुट्ठी में सहमी-सिमटी हुई बैठी है। ये मिल गई हमारी इक्कीसवीं सदी। कितनी दुबली-पतली और छोटी हो गई है।हथेलियों के बीच वह अंगूठे पर नाच रही है।सहमी,सिमटी हुई इसलिए भी है कि वह खुद बारूद की ढेर पर बैठी हुई है…पता नहीं कब विस्फोट हो जाये ?तब न तो सदी का पता रहेगा और न खुद हमारा…….।
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